कहानी संग्रह >> कन्या तथा अन्य कहानियाँ कन्या तथा अन्य कहानियाँशैलेश मटियानी
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चुनी हुई सोलह कहानियों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शैलेश मटियानी हिंदी के शार्षस्थ कहानीकार थे। यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति
नहीं होगी कि वे प्रेमचन्द के बाद के सबसे बड़े जनकथाकार थे। उन्हें
‘कथा-पुरूष’ भी कहा जाता है। भारतीय कथा में साहित्य की
जनवादी जातीय परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता है।
वे दबे-कुचले भूखे नंगों दलितों उपेक्षितों के व्यापक संसार की बड़ी
आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं। उपेक्षित और बेसहारा लोग ही
मटियानी की कहानी की ताकत हैं।
दलित वर्ग से ही वे शक्ति पाते हैं पर उस शक्ति का उपयोग वे उन्हीं की आवाज बुलंद करने के लिए करते हैं। उनके दलितों में नारी प्रमुख रूप से शामिल है। दलित जीवन के व्यापक और विशाल अनुभव और उनकी जिजीविषा एवं संघर्ष को बेधक कहानी में ढाल देने की सिद्धहस्तता ही मटियानी को कहानी के शिखर पर पहुँचाती है। मटियानी की कहानी से गुजरना भूखे-नंगे, बेसहारा और दबे-कुचले लोगों की करूणा कराह, भूख और मौत के आर्तनाद के बीच से गुजरना है। प्रस्तुत कथा संग्रह में शैलेश मटियानी की चुनी हुई सोलह कहानियाँ संगृहीत हैं।
ये वे कहानियाँ है, जिसे मटियानी जी अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में स्थान देते हैं। ये कहानियाँ कारूणिक हैं, मार्मिक हैं, हृदयस्पर्शी हैं-जो पाठकों के अंतर्मन को छू जाएंगी।
दलित वर्ग से ही वे शक्ति पाते हैं पर उस शक्ति का उपयोग वे उन्हीं की आवाज बुलंद करने के लिए करते हैं। उनके दलितों में नारी प्रमुख रूप से शामिल है। दलित जीवन के व्यापक और विशाल अनुभव और उनकी जिजीविषा एवं संघर्ष को बेधक कहानी में ढाल देने की सिद्धहस्तता ही मटियानी को कहानी के शिखर पर पहुँचाती है। मटियानी की कहानी से गुजरना भूखे-नंगे, बेसहारा और दबे-कुचले लोगों की करूणा कराह, भूख और मौत के आर्तनाद के बीच से गुजरना है। प्रस्तुत कथा संग्रह में शैलेश मटियानी की चुनी हुई सोलह कहानियाँ संगृहीत हैं।
ये वे कहानियाँ है, जिसे मटियानी जी अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में स्थान देते हैं। ये कहानियाँ कारूणिक हैं, मार्मिक हैं, हृदयस्पर्शी हैं-जो पाठकों के अंतर्मन को छू जाएंगी।
प्राक्कथन
‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ शैलेन्द्र मटियानी का
इकत्तीसवाँ
कहानी-संग्रह है। अभी तक मटियानी जी के प्रकाशित तीस कहानी-संग्रहों में
इस संग्रह की कोई भी कहानी संग्रहित नहीं है। ये कहानियाँ समय-समय पर
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन अभी तक असंग्रहीत ही हैं।
‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ में संगृहीत सोलह कहानियों में ‘कन्या’, ‘दुरगुली’, ‘काली नाग’, ‘ब्रह्मसंकल्प’, ‘चंद्रायणी’ और ‘गुलपिया उत्साद’ आदि कहानियाँ मटियानीजी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं, जिनके केंद्र में नारी और दलित हैं। अभी तक नारी और दलित चेतना की अलख जगानेवाली धारदार कहानियों पर पाठकों, आलोचकों का किसी संकलन में संकलित न होने के कारण ध्यान ही नहीं जा पाया है। इसलिए ‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ संग्रह का विशेष महत्त्व है।
‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ में संगृहीत सोलह कहानियों में ‘कन्या’, ‘दुरगुली’, ‘काली नाग’, ‘ब्रह्मसंकल्प’, ‘चंद्रायणी’ और ‘गुलपिया उत्साद’ आदि कहानियाँ मटियानीजी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं, जिनके केंद्र में नारी और दलित हैं। अभी तक नारी और दलित चेतना की अलख जगानेवाली धारदार कहानियों पर पाठकों, आलोचकों का किसी संकलन में संकलित न होने के कारण ध्यान ही नहीं जा पाया है। इसलिए ‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ संग्रह का विशेष महत्त्व है।
कन्या
ससुराल में अपनी संततियों के अस्तित्व में वंश-बेलि की तरह फैल जानेवाली
श्वेतकेशा नारी की तरह न जाने कितनी-कितनी चौड़ी धरती पर फैल जाने वाली
विराटा तरंजिता इन पहाड़ी घाटियों में, अपने उद्गम की ओर, धीरे-धीरे यों
सिमटती, सँकरी होती चली जाती है जैसे पहली बार ससुराल से मायके लौटनेवाली
वधू अपने मायके के आँगन तक पहुँचते-पहुँचते एकदम लजा जाती है और अपनी माँ,
अपने पिता के चरणों को छूते समय एकदम छोटी पड़ जाती है।
लगता है, अपनी माँ धरित्री और पिता पर्वत तक पहुँचते-पहुँचते यही दशा नदी की हो जाती है। यहाँ वह अपने को समेटकर ही रहती है, फैलाकर नहीं। अपने मातृकुल की मर्यादा का बाँध ही तो जैसे हरेक कन्या को स्वेच्छा से अवांछित विस्तार पालने से रोकता है। पिछले दस वर्षों की स्मृतियाँ शेष हैं। मायके की धरती छोड़ने के बाद सुन्याल की धारा से भी ज्यादा सिमटती-सिमटती वह शहर तक पहुँची थी और उसके बाद धीरे-धीरे जैसे उसके अभिशप्त जीवन का विस्तार शुरू हुआ था। संन्यासिनों की पाँत में जुड़ने के बाद न जाने कितने तीर्थों और उन तीर्थ यात्राओं की अवधि में न जाने कितने संन्यस्तों, गृहस्थों और अंततः भिखारियों तक की संगति में एक अपने को फैलाना पड़ा था।
न जाने कैसी-कैसी स्थितियों को जीना पड़ा था और विरक्ति से जगाने वाली आत्मघात की कल्पना के क्षणों में किसी का करुण निषेध गूँजता जा रहा था। और अपने को जहाँ समेटकर रखना संभव है वहाँ से स्वयं ही निष्कासित हो आई थी और परदेश में सिमटकर, अपनी मर्यादाओं से बँधकर रह सकना मृत्यु-वरण की स्थिति में ही संभव हो सकता था। जीने के लिए तो नदी की तरह बहते रहना ही नियति बन गई थी।
किंतु इस वर्ष दसवें साल हरिद्वार गई थी तो गंगा में स्नान करते समय एकाएक पिता का स्मरण हो आया था और हवा सा सारा अस्तित्व सिर्फ एक तृष्णा में सिमटता चला गया था—एक झलक बाज्यू के दर्शन पाने की तृष्णा जैसे पहाड़ियों की तरह दो पाट ऊँची होती चली गई थी और उनके बीच मिरदुला के अब तक के सारे जीवन का फैलाव सिमटता ही चला गया था और वह छोटी पड़ती चली गई थी। अपने विराट् पिता के चरणों में क्षुद्र बनकर ही लोटा जा सकता है, इस बोध मात्र से बचपन की सारी स्मृतियाँ उभर आईं थीं और पिछले दस वर्षों में जोड़ी हुई पूँजी में से बाज्यू, छोटी माँज्यू और भाई शिवचरन के लिए कुछ-न-कुछ खरीदकर मिरदुला मायके की ओर लौट आई थी। और मायके के गाँव की ओर फूटनेवाली पगडंडी तथा सुन्याल की ओर देखते-देखते उसे यही अनुभूति हो रही थी कि वह इतनी ही सँकरी, इतनी ही बँधी हुई हो गई है।
बार-बार आत्मा शंकित हो उठती है। शहर से गाँव लौटता कोई यों पुल के पास बैठी देखेगा तो कहीं जिज्ञासावश कुछ पूछने न लग जाए। पहचानकार कोई पहले ही बाज्यू, माँज्यू तक सूचना पहुँचा दे तो न जाने उन पर क्या प्रतिक्रिया हो ? माँ-पिता की ओर से एक प्रकार की निश्शंक आश्वस्ति ही यहाँ तक सहारा देकर ले आई है, मगर अब तक नाती-पोतोंवाले हो गए होंगे तो कहीं ममता उनमें न बँट गई हो। और कदाचित न रहे हों तो न जाने शिवचरन और हरिप्रिया कैसा रुख अपनाएँ। हरिप्रिया यह न अनुभव करे कि दस साल पुराने व्यवहार की करनी अभी तक भी नहीं भूली है, इसलिए वह बाज्यू के साथ-साथ हरिप्रिया और शिवचरन के लिए भी एक-दो कपड़े खरीद लाई थी। और अब आत्मा शंकित हो रही थी, बार-बार इतनी आत्मीयता और तृष्णा के साथ लाए हुए उसके कपड़ों को यदि किसी ने भी नहीं स्वीकारा तो !
अचानक पोटली में से झुनझुना बजने की आवाज आई तो मिरदुला खो गई।
दस वर्ष बीत गए हैं। शिवचरन के बच्चे जरूर हो गए होंगे। एक बार, सिर्फ एक बार भी उनके हाथों से अपने लाए हुए झुनझुने की आवाज सुन सकने का सुख उपलब्ध हो सकेगा ! जितना सुख अपने बड़ों के सामने छोटा पड़ जाने पर मिलता है उतना ही अपने से छोटों के सामने बड़ा बन जाने पर भी तो; सैंतीसवाँ लग गया होगा अब। ग्रीवा और माथे पर के थोड़े-थोड़े बाल फूल आए हैं। बाज्यू की स्मृति के सामने यदि आत्मा का शिशुत्व ज्यों-का-त्यों सिमट आता है तो भतीजे-भतीजियों की कल्पना मात्र से अपनी देह बहुत सयानी लगती है। किनारे के छोटे-छोटे गोल पत्थरों को अपने पाँवों पर हौले-हौले लुढ़काते हुए मिरदुला सोचने लगी—छोटे-छोटे बच्चों की हथेलियों से भी तो ऐसी ही गुदगुदी लगती होगी।
अचानक प्रयाग और काशी में बिताए हुए वर्षों की याद ने घेर लिया। मिरदुला का मन एकदम उद्भ्रांत हो आया, इतनी कलुषित देह लेकर जा सकेगी मायके ! उठा सकेगी दृष्टि उस तेजस्वी ब्राह्मण के प्रशस्त ललाट की ओर।
सिर्फ आज से दस वर्ष पहले पिता के मुँह से सुने हुए कुछ वाक्यों की आश्वस्ति का ही तो सहारा है; किंतु वह निर्विकार दृष्टि, वह करुण वाणी क्या अब भी ज्यों-की-त्यों होगी !
सौतेली माँ हरिप्रिया ने जिस दिन लांछित किया था, उसकी व्याकुलता और व्यथा को समझते हुए श्याम पंडित ने कहा था, ‘दुली, जब तू हुई थी, तभी से ही तेरी माँज्यू बीमार पड़ गई थी। लगातार तीन महीने बीमार रहकर मृत्यु की ओर बढ़ने लगी तो एक दिन तुझे खेत में गाड़ने उठा ले गई थी। मुझे भनक पड़ गई और लौटा आया तो बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी—मैं तुझ कानी कौड़ी को सँभालकर कैसे रख सकूँगी ? कहती थी, औरत की जात में जहाँ जरा सा भी खोट हुआ, तो उसे कौड़ियों की तरह पासा खेलने वाले बहुत होते हैं, मगर शंखाधार पर शंख की तरह पूजने वाले पुरुष बहुत कम होते हैं।...तेरी माँज्यू को यही शंका थी, तुझसे विवाह कोई नहीं करेगा और वह यह भी कह रही थी, पापों में डूबने से भी पापों से बचने के दुःख ज्यादा होते हैं।
मगर मैं न भी लौटा लाता तो भी वह तुझे मार तो नहीं पाती, दुली।....और आज तू उस अवस्था में मेरे पाँवों पर माथा टेक रही है, जिसकी तेरी माँज्यू को आशंका रहती थी, तो मेरे पास तेरी व्यथा को दूर कर सकने का कोई उपाय नहीं है, बेटी !....सिर्फ इतना ही तुझसे कह सकता हूँ कि जीवन को मृत्यु के क्षण तक शांत भाव से जीना ही मनुष्य का धर्म है। अपने सारे गुण-दोषों को शिवार्पित करके, अपने को और दूसरों को क्षमा करते हुए उस मृत्यु की प्रतीक्षा में जीना चाहिए, जो अपने पीछे जिंदगी की सार्थकता छोड़ जाती है।...आज तू निर्दोष है, दुली, कल दोष भी आ सकते हैं। आज तुझे सिर्फ हरचरन और हरिप्रिया पर रोष हो सकता है, कल अपने पर भी हो सकता है।...और इतना याद रखना, जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता, उसमें अपने को क्षमा करने की शक्ति भी नहीं होती।’
मिरदुला की कानी आँख का कोना तब भी डूब गया था। लगा था, किसी विशाल वृक्ष के नीचे आँख मूँदे सोई है और सारा वन गूँज रहा है।
बाज्यू कहते रहे थे, ‘दुली, तेरी माँ भी पढ़ी-लिखी नहीं थी। मगर सिर्फ अक्षर ज्ञान से ही शून्य थी वह, आत्मज्ञान से नहीं। इसलिए आज चौंतीस वर्ष उसको बीत गए हैं तो भी मेरे मन में उसके नारीत्व की, उसके अस्तित्व की सार्थकता शेष है। बेटी, अपने वृद्ध पिता को क्षमा करना। मुझे अपनी आत्मा अब ऐसी वीरान धरती जैसी लगती है, जिस पर वर्षों तक छलछलाती रहनेवाली कोई नदी असमय ही हट गई हो और अब सिर्फ उसकी गहरी रेखा शेष रह गई हो। अपने अस्तित्व के बोध को एक ऐसी गहरी रेखा के रूप में किसी और की धरती पर छोड़ जाने में ही तो मृत्यु की सार्थकता है, दुली !...यों तो इस संसार में लाखों मरते हैं, लाखों जीतें हैं।’
पिता के कहे हुए बहुत से शब्दों को समझने में मिरदुला असमर्थ रहती थी; मगर फिर भी इतना समझ गई थी, पिता का उद्देश्य उसके मन में उस विकृति और आक्रोश को हटाना ही है, जिससे आत्मघात कर लेने की बात उसके मन में उत्पन्न हो रही थी। वह अनुभव करती रहती थी, पिता उसकी आत्मा में उसकी स्वर्गीय माँ की विराटता की कलम लगाने का प्रयत्न कर रहे थे, ताकि अपने सारे खोटों के बावजूद वह एक शांत जीवन जी सके। मगर फिर भी वह घर में रुक नहीं सकी थी।
उसने अनुभव किया था कि हरचरन कका के पश्चाताप से बिलबिलाते होठों को अपनी क्षीण दृष्टि से झेल पाना बहुत कठिन होगा। अपने विराट् पिता का कहा हुआ सत्य कितना यथार्थ था, वह समझ गई थी। यदि हरिचरन की आत्मिक दुर्बलता के उन क्षणों में उसे हरिप्रिया ने देखकर भी अनदेखा कर दिया होता तो संभवतः यह क्षमा पाप-बोध की उस दाहक चिता से उनकी आत्मा को उतार देती, जिस पर अभी न जाने कब तक उन्हें सुलगते ही रहना होगा। मिरदुला सोचने लगी थी, जहाँ तक उसका प्रश्न था, यही सोच लेती कि उसकी तो बच्ची ही हूँ। उन्होंने किस भावना से प्यार किया, यह उन्हीं तक सीमित रहे, मैं उसी रूप में स्वीकार करती हूँ जिस रूप में वह पाप की अनुभूति नहीं बनता।
मिरदुला को लगता रहा था, उसके बाज्यू का कहा हुआ सत्य ही उन सबके अनुकूल सत्यों से ऊपर है, कि दूसरों से घृणा करने वाला अपने आपसे घृणा करने से भी अपने को रोक नहीं सकता है। हरचरन कका के प्रति घृणा अनुभव करने के बाद ही तो अपने से घृणा अनुभव करने और हरिप्रिया के प्रति आक्रोश करने के बाद ही तो अपने प्रति रोष करने की मनः स्थिति व्याप सकती थी ! मगर बिना पिता के जैसे विराट् विवेक के ही इन सबके बीच जीने से न जाने कितने ऐसे अवसर संभव हो जाएँगे, जिनमें अपने को घृणा और रोष करने से रोक नहीं पाएगी। वह पिता के पाँवों पर माथा रखते हुए आत्मा जैसी शांति अनुभव करती है, हरचरन कका और छोटी माँज्यू की संगति में वैसा अनुभव किया जा सके, यह तो संभव नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि कल पिता अपने सारे उपदेशों की व्यर्थता को अपनी उसी चक्षुहीन आत्मजा के माध्यम से ही अनुभव न करें, जिसको विषाद विक्षोभ से सदैव मुक्त रखने की भावना उनको निरंतर उस दिन भगीरथी की याद में विह्वल करती रहती है, जो उनकी आत्मा को धरती पर अपनी अमिट रेखा आँक गई है।
मिरदुला को याद आया कि हरिप्रिया कभी-कभी अपने साथ की औरतों से कहा करती थी कि ‘मुरदों की गति—किरिया करने वाले ब्राह्मण को मुरदों के प्रति ही आसक्ति ज्यादा होती है। नहाते समय ‘हर-हर गंगे भागीरथी’ कहते हैं शिवचरन के बाज्यू, तो मुँह में जवानों का जैसा ताप आ जाता है।’
भागीरथी के सेवा के अभ्यस्त हरचरन और मिरदुला उनसे नहीं सँभलेंगे, इसी भावना से श्याम पंडित, पत्नी के मृत्यु के साल भर बाद ही, सीधे अपने ससुर के पास चले गए थे। तीस तक हरिप्रिया भी पहुँच गई थी, मगर कुवाँरी ही थी। श्याम पंडित ने सीधे-सीधे अपना मंतव्य ससुर के सामने रख दिया था।
और रामदत्त पंडित ने अपने बेटों के निषेध को नकार दिया था, ‘जिस ब्राह्मण ने मेरी सर्वत्याज्या कन्या को पार्वती की तरह स्वीकार किया, उसके लिए नास्ति मेरे पास नहीं है।’
लोग कहा करते थे—जैसी लांछिता भागीरथी को श्याम पंडित उठा लाए थे वैसी किसी और को यदि कोई ब्राह्मण ले आया होता तो शायद बिरादरी के लोग पानी तक बंद कर चुके होते और यजमानी सदा-सदा के लिए छूट जाती। मगर, श्याम पंडित की प्रशांत तेजस्विता में कुछ ऐसा होता था, बिरादरी के सबसे सयाने और जातीयता के दर्प से वासुकि नाग की तरह फुफकारते रहनेवाले मुरलीधर ने भी यही कह दिया था, ‘जो शिव के घर में आए, उसे पार्वती के रूप में ही स्वीकार कर लेना चाहिए।
ऐसे विराट् पिता की स्मृति ही तो दस वर्षों तक परदेश में ठौर-ठौर फैली हुई मिरदुला को आज फिर इस मायके की घाटी में सिमटा लाई है। उस आशुतोष पुरुष का स्मरण मात्र भी आत्मा को विकारों से मुक्त देता रहा है। मायके में सिर्फ एक क्षण के विकार को न झेल सकनेवाली मिरदुला ने पिछले दस वर्षों में न जाने कितनी-कितनी विकृतियाँ झेली हैं; मगर यह बोध मात्र कि औरों की विकृति को भी अपनी विकृति स्वीकर लेने से पाप उत्पन्न होता है, जैसे कीचड़ को कीचड़ से मिला देने से सिर्फ कीचड़ ही शेष रहती है, मगर नदी की धारा की तरह प्रवहमान बनकर कीचड़ को स्वीकारने से कीचड़ अपने में कहीं भी स्थिर नहीं रहती—मिरदुला को अपने से घृणा करने से ही नहीं, औरों से घृणा करने से भी रोकती रही थी, और आज दस वर्षों के बाद भी अपने अतीत के प्रति घृणा शेष नहीं है। मगर कहीं कोई उपलब्धि भी तो शेष नहीं है।
ठीक उसी उम्र में माँज्यू मरी थीं, मगर कहीं भी तो मिरदुला ने पीछे ऐसी धरती नहीं पाई, जिसमें उसके अस्तित्व की गहरी रेखा खिंची हुई हो।
छोटी माँज्यू के प्रति कोई आक्रोश शेष नहीं है, इसलिए आत्मिक लगाव की अनुभूति नहीं होती है। हरचरन कका के प्रति सिर्फ एक क्षण को अस्थिर घृणा शेष है तो एक अव्यक्त संवेदना भी है। अब तो वे भी बहुत वृद्ध हो गए होंगे। संभव है, कहीं वह पश्चाताप भी शेष रहा हो कि उसकी हीनता के कारण ही मिरदुला घर छोड़ गई थी। हो सकता है, इसी पश्चाताप में घुलते-घुलते मर भी गए हों। संभव था, उस दिन के बाद भी मिरदुला घर पर ही रहती और उनकी पूर्ववत सेवा करती रहती तो हरचरन कका की आत्मा में कहीं एक कृतज्ञता की गहरी रेखा खिंच जाती ! चले आने के बाद तो शायद यह भी सोचा हो, अक्षम्य मानकर ही छोड़ गई। बाँ-बाँ-बाँ...
ऊपर पगडंडी पर वन से लौटती गायें रँभा रही होंगी। मिरदुला उतनी दूर देख नहीं पाती है, मगर आत्मा विह्वलता से ठीक वैसे ही रँभाने को हो आती है। तब आँगन के एक कोने में बँधी रहने वाली छोटी सी बाछी लछिमा भी तो अब बहुत सयानी हो गई होगी ! कितनी ही बार तो ब्या भी गई होगी ! काश, मिरदुला को भी गाय बाछी की ही योनि दे दी होती ईश्वर ने, जिनके लिए मायके-ससुराल की कोई सीमा नहीं है।
पोटली बाँधते-बाँधते मिरदुला फिर व्याकुल हो उठी। उजाला रहते जाती है, तो संभव है, रास्ते में ही कोई पहचान ले। साँझ होने देती है तो सँकरी पगडंडी पर चलना कठिन हो जाएगा। पगडंडी के नीचे घाटियाँ हैं। जरा सा भी पाँव फिसला तो...
एक दृश्य सामने उभर आता है। पगडंडी पर चलते-चलते मिरदुला फिसल पड़ती है और दूसरे दिन श्याम पंडित को खबर मिलती है, नीचे घाटी में कोई कानी औरत मरी पड़ी है। हो सकता है, बावलों की तरह दौड़ पड़े बाज्यू कि ‘अरे, कही मेरी दुली छोरी तो नहीं है !’
अब तो अस्सी पार पहुँच गए होंगे। आँखों की ज्योति उनकी भी क्षीण हो गई होगी। कहीं ऐसा न हो कि पगडंडी पर दौड़ने में वह भी फिसल जाएँ !
मिरदुला ने अपनी जीभ काट ली। पिता के लिए अमंगल की बात सोचने मात्र से आत्मा काँप उठती है। अपनी मृत्यु भी अपेक्षित नहीं है। मृत्यु के बाद तो कानी आँख का यह थोड़ा सा उघड़ा हुआ कोना भी पथरा जाएगा और तब बाज्यू सामने भी होंगे तो कुछ दिखाई नहीं देगा। कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
मन को कुछ स्थिर करके मिरदुला ने पोटली को सिर पर उठा लिया। धीरे-धीरे लाठी टेकती चलने लगी तो फिर एक बार शंका हो गई कि लाठी टेककर चलते देखकर कहीं कोई यह अनुमान न लगा ले, मिरदुला कानी आ रही है। मिरदुला जानती है कि अपने आने की पूर्व सूचना न मिलने देने की इच्छा और निश्शंक-निस्संकोच भाव से घर तक चले जाने में सिर्फ इसी आशंका को लेकर आई है कि इन बीते हुए दस वर्षों के बाद भी वृद्ध पिता जीवित होंगे या नहीं।
घने जंगल के बीच की लगभग समतल-सी एक पट्टी में गाँव बसा हुआ है। पूरा गाँव कभी भी मिरदुला को दिखाई नहीं दिया था। मगर थोड़ी-थोड़ी देखी हुई बस्ती को जोड़कर अपने ही अंदर देखने से जैसे पूरा गाँव प्रत्यक्ष हो उठता है। अपनी क्षीण ज्योति के सहारे ही मिरदुला तब भी बहुत सा काम कर लेती थी। खेतों में भी चली जाती थी और जंगल की सीमा तक गाय बाछी चराने भी। पगडंडी तो तब की ही पहचानी हुई है जब चुपचाप घर छोड़कर आई थी। गाय-बाछी चराने के बहाने आई थी और उनके झालर कुरबुरा-कुरबुराकर, उनके गले लगकर रो-रोकर चौड़ी सड़क पर जा मिलनेवाली पगडंडी पर चल पड़ी थी। जितनी अनजानी पगडंडी तब, उससे भी अनजाना अपना भविष्य था।
सिर्फ यह निश्चय कि जो कुछ भी जीवन में आएगा, उसे एकदम सहज भाव से स्वीकारती, डरानेवाले सारे संघर्षों के बीच कहीं अपनी सार्थकता की दिशा खोजती हुई तब तक जी लेगी जब तक मृत्यु स्वयं न समेट ले—और आज फिर इसी पगडंडी पर सिमट-सिमटकर चलते समय सिर्फ इतना ही निश्चय शेष है कि यदि पिताजी जीवित होंगे, स्वीकार लेंगे तो उनकी और हरचरन कका की सेवा में दिन बिता लेगी। एक क्षीण-ज्योति रेखा जो आँखों में है, इसे ईश्वर ने संभवतः इसीलिए शेष भी रख छोड़ा है कि जैसे नदी की रेखा अपने आस-पास की धरती सींचती चली जाती है, ठीक वैसे ही अपनी इस क्षण दृष्टि के दायरे में आनेवालों की सेवा मिरदुला भी करती चली जाए। न जाने किस पूर्वजन्म के किन अपराधों के दंड-स्वरूप आँखों की यह विकृति देकर, प्रायश्चित्त के लिए क्षीण-सी ज्योति दे रखी है। इससे भी दुर्भावना और कठोरता का अंधकार ही बटोरे तो बहुत संभव है, अगले जन्म में इतना भी प्रकाश जीवन में शेष न रहे।
पगडंडी पार करते-करते खेतों की सीमा तक पहुँच गई तो मिरदुला ने दूर तक देखना चाहा, मगर दृष्टि काँपकर रह गई। लगा, गाय-बछियों को जैसी स्थिति में छोड़ गई थी, ज्यों-की-त्यों हैं। जैसे तब परदेश जाती मिरदुला को देखती रही होंगी वैसे ही शायद भाग्य से भी लौटती देख रही हैं। एकटक। ऐसे ही क्षणों में तो ईश्वर के प्रति मिरदुला विरोध जताने लगती है कि ‘हे प्रभु, या तो ऐसी बावली आत्मा नहीं दी होती या इतनी कुंठित कानी आँख भी एकदम बंद कर दी होती, जिससे विस्तार को देखने की उत्कट लालसा तो प्रबल हो आती है, मगर दिखता सिर्फ उतना ही है जितना लाठी से भी टटोला जा सकता है।
पिछले दस वर्षों में कितने ही ऐसे जन्मांधों को मिरदुला ने देखा था, जो अपनी लाठी के सहारे मिरदुला से भी कहीं अधिक सुगमता से यात्रा कर लेते थे।
पानी के धारे तक पहुँच जाने के बाद मिरदुला थोड़ा पीछे की ओर लौट आई। कहीं छोटी माँज्यू पानी भरने आ रही होंगी, तो ! मगर सिर्फ इस कल्पना से धीरे के पास खिंच आई, हो सकता है, सौतेले भाई शिवचरन की बहू पानी भरने आए ! छोटी माँज्यू भी तो अब बूढ़ी हो गई होंगी। बहू पहचानेगी तो नहीं ! उससे बातें करके सबके बारे में पता चल जाएगा।
मगर कहीं पता चला कि श्याम पंडित तो....तब क्या होगा ! तब कहाँ को जाएगी मिरदुला ! पानी के इस धारे के पास सिर्फ दो ही घर पड़ते थे—एक श्याम पंडित का, दूसरा उनके चचेरे भाई का। शेष दूसरी ओर के। उनका घर वहीं पास में ही था। मिरदुला अब और भी द्विविधा में पड़ गई थी, यहाँ से घर की ओर आगे बढ़े या कहीं खेत की ओट में बैठ जाए!
लगता है, अपनी माँ धरित्री और पिता पर्वत तक पहुँचते-पहुँचते यही दशा नदी की हो जाती है। यहाँ वह अपने को समेटकर ही रहती है, फैलाकर नहीं। अपने मातृकुल की मर्यादा का बाँध ही तो जैसे हरेक कन्या को स्वेच्छा से अवांछित विस्तार पालने से रोकता है। पिछले दस वर्षों की स्मृतियाँ शेष हैं। मायके की धरती छोड़ने के बाद सुन्याल की धारा से भी ज्यादा सिमटती-सिमटती वह शहर तक पहुँची थी और उसके बाद धीरे-धीरे जैसे उसके अभिशप्त जीवन का विस्तार शुरू हुआ था। संन्यासिनों की पाँत में जुड़ने के बाद न जाने कितने तीर्थों और उन तीर्थ यात्राओं की अवधि में न जाने कितने संन्यस्तों, गृहस्थों और अंततः भिखारियों तक की संगति में एक अपने को फैलाना पड़ा था।
न जाने कैसी-कैसी स्थितियों को जीना पड़ा था और विरक्ति से जगाने वाली आत्मघात की कल्पना के क्षणों में किसी का करुण निषेध गूँजता जा रहा था। और अपने को जहाँ समेटकर रखना संभव है वहाँ से स्वयं ही निष्कासित हो आई थी और परदेश में सिमटकर, अपनी मर्यादाओं से बँधकर रह सकना मृत्यु-वरण की स्थिति में ही संभव हो सकता था। जीने के लिए तो नदी की तरह बहते रहना ही नियति बन गई थी।
किंतु इस वर्ष दसवें साल हरिद्वार गई थी तो गंगा में स्नान करते समय एकाएक पिता का स्मरण हो आया था और हवा सा सारा अस्तित्व सिर्फ एक तृष्णा में सिमटता चला गया था—एक झलक बाज्यू के दर्शन पाने की तृष्णा जैसे पहाड़ियों की तरह दो पाट ऊँची होती चली गई थी और उनके बीच मिरदुला के अब तक के सारे जीवन का फैलाव सिमटता ही चला गया था और वह छोटी पड़ती चली गई थी। अपने विराट् पिता के चरणों में क्षुद्र बनकर ही लोटा जा सकता है, इस बोध मात्र से बचपन की सारी स्मृतियाँ उभर आईं थीं और पिछले दस वर्षों में जोड़ी हुई पूँजी में से बाज्यू, छोटी माँज्यू और भाई शिवचरन के लिए कुछ-न-कुछ खरीदकर मिरदुला मायके की ओर लौट आई थी। और मायके के गाँव की ओर फूटनेवाली पगडंडी तथा सुन्याल की ओर देखते-देखते उसे यही अनुभूति हो रही थी कि वह इतनी ही सँकरी, इतनी ही बँधी हुई हो गई है।
बार-बार आत्मा शंकित हो उठती है। शहर से गाँव लौटता कोई यों पुल के पास बैठी देखेगा तो कहीं जिज्ञासावश कुछ पूछने न लग जाए। पहचानकार कोई पहले ही बाज्यू, माँज्यू तक सूचना पहुँचा दे तो न जाने उन पर क्या प्रतिक्रिया हो ? माँ-पिता की ओर से एक प्रकार की निश्शंक आश्वस्ति ही यहाँ तक सहारा देकर ले आई है, मगर अब तक नाती-पोतोंवाले हो गए होंगे तो कहीं ममता उनमें न बँट गई हो। और कदाचित न रहे हों तो न जाने शिवचरन और हरिप्रिया कैसा रुख अपनाएँ। हरिप्रिया यह न अनुभव करे कि दस साल पुराने व्यवहार की करनी अभी तक भी नहीं भूली है, इसलिए वह बाज्यू के साथ-साथ हरिप्रिया और शिवचरन के लिए भी एक-दो कपड़े खरीद लाई थी। और अब आत्मा शंकित हो रही थी, बार-बार इतनी आत्मीयता और तृष्णा के साथ लाए हुए उसके कपड़ों को यदि किसी ने भी नहीं स्वीकारा तो !
अचानक पोटली में से झुनझुना बजने की आवाज आई तो मिरदुला खो गई।
दस वर्ष बीत गए हैं। शिवचरन के बच्चे जरूर हो गए होंगे। एक बार, सिर्फ एक बार भी उनके हाथों से अपने लाए हुए झुनझुने की आवाज सुन सकने का सुख उपलब्ध हो सकेगा ! जितना सुख अपने बड़ों के सामने छोटा पड़ जाने पर मिलता है उतना ही अपने से छोटों के सामने बड़ा बन जाने पर भी तो; सैंतीसवाँ लग गया होगा अब। ग्रीवा और माथे पर के थोड़े-थोड़े बाल फूल आए हैं। बाज्यू की स्मृति के सामने यदि आत्मा का शिशुत्व ज्यों-का-त्यों सिमट आता है तो भतीजे-भतीजियों की कल्पना मात्र से अपनी देह बहुत सयानी लगती है। किनारे के छोटे-छोटे गोल पत्थरों को अपने पाँवों पर हौले-हौले लुढ़काते हुए मिरदुला सोचने लगी—छोटे-छोटे बच्चों की हथेलियों से भी तो ऐसी ही गुदगुदी लगती होगी।
अचानक प्रयाग और काशी में बिताए हुए वर्षों की याद ने घेर लिया। मिरदुला का मन एकदम उद्भ्रांत हो आया, इतनी कलुषित देह लेकर जा सकेगी मायके ! उठा सकेगी दृष्टि उस तेजस्वी ब्राह्मण के प्रशस्त ललाट की ओर।
सिर्फ आज से दस वर्ष पहले पिता के मुँह से सुने हुए कुछ वाक्यों की आश्वस्ति का ही तो सहारा है; किंतु वह निर्विकार दृष्टि, वह करुण वाणी क्या अब भी ज्यों-की-त्यों होगी !
सौतेली माँ हरिप्रिया ने जिस दिन लांछित किया था, उसकी व्याकुलता और व्यथा को समझते हुए श्याम पंडित ने कहा था, ‘दुली, जब तू हुई थी, तभी से ही तेरी माँज्यू बीमार पड़ गई थी। लगातार तीन महीने बीमार रहकर मृत्यु की ओर बढ़ने लगी तो एक दिन तुझे खेत में गाड़ने उठा ले गई थी। मुझे भनक पड़ गई और लौटा आया तो बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी—मैं तुझ कानी कौड़ी को सँभालकर कैसे रख सकूँगी ? कहती थी, औरत की जात में जहाँ जरा सा भी खोट हुआ, तो उसे कौड़ियों की तरह पासा खेलने वाले बहुत होते हैं, मगर शंखाधार पर शंख की तरह पूजने वाले पुरुष बहुत कम होते हैं।...तेरी माँज्यू को यही शंका थी, तुझसे विवाह कोई नहीं करेगा और वह यह भी कह रही थी, पापों में डूबने से भी पापों से बचने के दुःख ज्यादा होते हैं।
मगर मैं न भी लौटा लाता तो भी वह तुझे मार तो नहीं पाती, दुली।....और आज तू उस अवस्था में मेरे पाँवों पर माथा टेक रही है, जिसकी तेरी माँज्यू को आशंका रहती थी, तो मेरे पास तेरी व्यथा को दूर कर सकने का कोई उपाय नहीं है, बेटी !....सिर्फ इतना ही तुझसे कह सकता हूँ कि जीवन को मृत्यु के क्षण तक शांत भाव से जीना ही मनुष्य का धर्म है। अपने सारे गुण-दोषों को शिवार्पित करके, अपने को और दूसरों को क्षमा करते हुए उस मृत्यु की प्रतीक्षा में जीना चाहिए, जो अपने पीछे जिंदगी की सार्थकता छोड़ जाती है।...आज तू निर्दोष है, दुली, कल दोष भी आ सकते हैं। आज तुझे सिर्फ हरचरन और हरिप्रिया पर रोष हो सकता है, कल अपने पर भी हो सकता है।...और इतना याद रखना, जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता, उसमें अपने को क्षमा करने की शक्ति भी नहीं होती।’
मिरदुला की कानी आँख का कोना तब भी डूब गया था। लगा था, किसी विशाल वृक्ष के नीचे आँख मूँदे सोई है और सारा वन गूँज रहा है।
बाज्यू कहते रहे थे, ‘दुली, तेरी माँ भी पढ़ी-लिखी नहीं थी। मगर सिर्फ अक्षर ज्ञान से ही शून्य थी वह, आत्मज्ञान से नहीं। इसलिए आज चौंतीस वर्ष उसको बीत गए हैं तो भी मेरे मन में उसके नारीत्व की, उसके अस्तित्व की सार्थकता शेष है। बेटी, अपने वृद्ध पिता को क्षमा करना। मुझे अपनी आत्मा अब ऐसी वीरान धरती जैसी लगती है, जिस पर वर्षों तक छलछलाती रहनेवाली कोई नदी असमय ही हट गई हो और अब सिर्फ उसकी गहरी रेखा शेष रह गई हो। अपने अस्तित्व के बोध को एक ऐसी गहरी रेखा के रूप में किसी और की धरती पर छोड़ जाने में ही तो मृत्यु की सार्थकता है, दुली !...यों तो इस संसार में लाखों मरते हैं, लाखों जीतें हैं।’
पिता के कहे हुए बहुत से शब्दों को समझने में मिरदुला असमर्थ रहती थी; मगर फिर भी इतना समझ गई थी, पिता का उद्देश्य उसके मन में उस विकृति और आक्रोश को हटाना ही है, जिससे आत्मघात कर लेने की बात उसके मन में उत्पन्न हो रही थी। वह अनुभव करती रहती थी, पिता उसकी आत्मा में उसकी स्वर्गीय माँ की विराटता की कलम लगाने का प्रयत्न कर रहे थे, ताकि अपने सारे खोटों के बावजूद वह एक शांत जीवन जी सके। मगर फिर भी वह घर में रुक नहीं सकी थी।
उसने अनुभव किया था कि हरचरन कका के पश्चाताप से बिलबिलाते होठों को अपनी क्षीण दृष्टि से झेल पाना बहुत कठिन होगा। अपने विराट् पिता का कहा हुआ सत्य कितना यथार्थ था, वह समझ गई थी। यदि हरिचरन की आत्मिक दुर्बलता के उन क्षणों में उसे हरिप्रिया ने देखकर भी अनदेखा कर दिया होता तो संभवतः यह क्षमा पाप-बोध की उस दाहक चिता से उनकी आत्मा को उतार देती, जिस पर अभी न जाने कब तक उन्हें सुलगते ही रहना होगा। मिरदुला सोचने लगी थी, जहाँ तक उसका प्रश्न था, यही सोच लेती कि उसकी तो बच्ची ही हूँ। उन्होंने किस भावना से प्यार किया, यह उन्हीं तक सीमित रहे, मैं उसी रूप में स्वीकार करती हूँ जिस रूप में वह पाप की अनुभूति नहीं बनता।
मिरदुला को लगता रहा था, उसके बाज्यू का कहा हुआ सत्य ही उन सबके अनुकूल सत्यों से ऊपर है, कि दूसरों से घृणा करने वाला अपने आपसे घृणा करने से भी अपने को रोक नहीं सकता है। हरचरन कका के प्रति घृणा अनुभव करने के बाद ही तो अपने से घृणा अनुभव करने और हरिप्रिया के प्रति आक्रोश करने के बाद ही तो अपने प्रति रोष करने की मनः स्थिति व्याप सकती थी ! मगर बिना पिता के जैसे विराट् विवेक के ही इन सबके बीच जीने से न जाने कितने ऐसे अवसर संभव हो जाएँगे, जिनमें अपने को घृणा और रोष करने से रोक नहीं पाएगी। वह पिता के पाँवों पर माथा रखते हुए आत्मा जैसी शांति अनुभव करती है, हरचरन कका और छोटी माँज्यू की संगति में वैसा अनुभव किया जा सके, यह तो संभव नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि कल पिता अपने सारे उपदेशों की व्यर्थता को अपनी उसी चक्षुहीन आत्मजा के माध्यम से ही अनुभव न करें, जिसको विषाद विक्षोभ से सदैव मुक्त रखने की भावना उनको निरंतर उस दिन भगीरथी की याद में विह्वल करती रहती है, जो उनकी आत्मा को धरती पर अपनी अमिट रेखा आँक गई है।
मिरदुला को याद आया कि हरिप्रिया कभी-कभी अपने साथ की औरतों से कहा करती थी कि ‘मुरदों की गति—किरिया करने वाले ब्राह्मण को मुरदों के प्रति ही आसक्ति ज्यादा होती है। नहाते समय ‘हर-हर गंगे भागीरथी’ कहते हैं शिवचरन के बाज्यू, तो मुँह में जवानों का जैसा ताप आ जाता है।’
भागीरथी के सेवा के अभ्यस्त हरचरन और मिरदुला उनसे नहीं सँभलेंगे, इसी भावना से श्याम पंडित, पत्नी के मृत्यु के साल भर बाद ही, सीधे अपने ससुर के पास चले गए थे। तीस तक हरिप्रिया भी पहुँच गई थी, मगर कुवाँरी ही थी। श्याम पंडित ने सीधे-सीधे अपना मंतव्य ससुर के सामने रख दिया था।
और रामदत्त पंडित ने अपने बेटों के निषेध को नकार दिया था, ‘जिस ब्राह्मण ने मेरी सर्वत्याज्या कन्या को पार्वती की तरह स्वीकार किया, उसके लिए नास्ति मेरे पास नहीं है।’
लोग कहा करते थे—जैसी लांछिता भागीरथी को श्याम पंडित उठा लाए थे वैसी किसी और को यदि कोई ब्राह्मण ले आया होता तो शायद बिरादरी के लोग पानी तक बंद कर चुके होते और यजमानी सदा-सदा के लिए छूट जाती। मगर, श्याम पंडित की प्रशांत तेजस्विता में कुछ ऐसा होता था, बिरादरी के सबसे सयाने और जातीयता के दर्प से वासुकि नाग की तरह फुफकारते रहनेवाले मुरलीधर ने भी यही कह दिया था, ‘जो शिव के घर में आए, उसे पार्वती के रूप में ही स्वीकार कर लेना चाहिए।
ऐसे विराट् पिता की स्मृति ही तो दस वर्षों तक परदेश में ठौर-ठौर फैली हुई मिरदुला को आज फिर इस मायके की घाटी में सिमटा लाई है। उस आशुतोष पुरुष का स्मरण मात्र भी आत्मा को विकारों से मुक्त देता रहा है। मायके में सिर्फ एक क्षण के विकार को न झेल सकनेवाली मिरदुला ने पिछले दस वर्षों में न जाने कितनी-कितनी विकृतियाँ झेली हैं; मगर यह बोध मात्र कि औरों की विकृति को भी अपनी विकृति स्वीकर लेने से पाप उत्पन्न होता है, जैसे कीचड़ को कीचड़ से मिला देने से सिर्फ कीचड़ ही शेष रहती है, मगर नदी की धारा की तरह प्रवहमान बनकर कीचड़ को स्वीकारने से कीचड़ अपने में कहीं भी स्थिर नहीं रहती—मिरदुला को अपने से घृणा करने से ही नहीं, औरों से घृणा करने से भी रोकती रही थी, और आज दस वर्षों के बाद भी अपने अतीत के प्रति घृणा शेष नहीं है। मगर कहीं कोई उपलब्धि भी तो शेष नहीं है।
ठीक उसी उम्र में माँज्यू मरी थीं, मगर कहीं भी तो मिरदुला ने पीछे ऐसी धरती नहीं पाई, जिसमें उसके अस्तित्व की गहरी रेखा खिंची हुई हो।
छोटी माँज्यू के प्रति कोई आक्रोश शेष नहीं है, इसलिए आत्मिक लगाव की अनुभूति नहीं होती है। हरचरन कका के प्रति सिर्फ एक क्षण को अस्थिर घृणा शेष है तो एक अव्यक्त संवेदना भी है। अब तो वे भी बहुत वृद्ध हो गए होंगे। संभव है, कहीं वह पश्चाताप भी शेष रहा हो कि उसकी हीनता के कारण ही मिरदुला घर छोड़ गई थी। हो सकता है, इसी पश्चाताप में घुलते-घुलते मर भी गए हों। संभव था, उस दिन के बाद भी मिरदुला घर पर ही रहती और उनकी पूर्ववत सेवा करती रहती तो हरचरन कका की आत्मा में कहीं एक कृतज्ञता की गहरी रेखा खिंच जाती ! चले आने के बाद तो शायद यह भी सोचा हो, अक्षम्य मानकर ही छोड़ गई। बाँ-बाँ-बाँ...
ऊपर पगडंडी पर वन से लौटती गायें रँभा रही होंगी। मिरदुला उतनी दूर देख नहीं पाती है, मगर आत्मा विह्वलता से ठीक वैसे ही रँभाने को हो आती है। तब आँगन के एक कोने में बँधी रहने वाली छोटी सी बाछी लछिमा भी तो अब बहुत सयानी हो गई होगी ! कितनी ही बार तो ब्या भी गई होगी ! काश, मिरदुला को भी गाय बाछी की ही योनि दे दी होती ईश्वर ने, जिनके लिए मायके-ससुराल की कोई सीमा नहीं है।
पोटली बाँधते-बाँधते मिरदुला फिर व्याकुल हो उठी। उजाला रहते जाती है, तो संभव है, रास्ते में ही कोई पहचान ले। साँझ होने देती है तो सँकरी पगडंडी पर चलना कठिन हो जाएगा। पगडंडी के नीचे घाटियाँ हैं। जरा सा भी पाँव फिसला तो...
एक दृश्य सामने उभर आता है। पगडंडी पर चलते-चलते मिरदुला फिसल पड़ती है और दूसरे दिन श्याम पंडित को खबर मिलती है, नीचे घाटी में कोई कानी औरत मरी पड़ी है। हो सकता है, बावलों की तरह दौड़ पड़े बाज्यू कि ‘अरे, कही मेरी दुली छोरी तो नहीं है !’
अब तो अस्सी पार पहुँच गए होंगे। आँखों की ज्योति उनकी भी क्षीण हो गई होगी। कहीं ऐसा न हो कि पगडंडी पर दौड़ने में वह भी फिसल जाएँ !
मिरदुला ने अपनी जीभ काट ली। पिता के लिए अमंगल की बात सोचने मात्र से आत्मा काँप उठती है। अपनी मृत्यु भी अपेक्षित नहीं है। मृत्यु के बाद तो कानी आँख का यह थोड़ा सा उघड़ा हुआ कोना भी पथरा जाएगा और तब बाज्यू सामने भी होंगे तो कुछ दिखाई नहीं देगा। कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
मन को कुछ स्थिर करके मिरदुला ने पोटली को सिर पर उठा लिया। धीरे-धीरे लाठी टेकती चलने लगी तो फिर एक बार शंका हो गई कि लाठी टेककर चलते देखकर कहीं कोई यह अनुमान न लगा ले, मिरदुला कानी आ रही है। मिरदुला जानती है कि अपने आने की पूर्व सूचना न मिलने देने की इच्छा और निश्शंक-निस्संकोच भाव से घर तक चले जाने में सिर्फ इसी आशंका को लेकर आई है कि इन बीते हुए दस वर्षों के बाद भी वृद्ध पिता जीवित होंगे या नहीं।
घने जंगल के बीच की लगभग समतल-सी एक पट्टी में गाँव बसा हुआ है। पूरा गाँव कभी भी मिरदुला को दिखाई नहीं दिया था। मगर थोड़ी-थोड़ी देखी हुई बस्ती को जोड़कर अपने ही अंदर देखने से जैसे पूरा गाँव प्रत्यक्ष हो उठता है। अपनी क्षीण ज्योति के सहारे ही मिरदुला तब भी बहुत सा काम कर लेती थी। खेतों में भी चली जाती थी और जंगल की सीमा तक गाय बाछी चराने भी। पगडंडी तो तब की ही पहचानी हुई है जब चुपचाप घर छोड़कर आई थी। गाय-बाछी चराने के बहाने आई थी और उनके झालर कुरबुरा-कुरबुराकर, उनके गले लगकर रो-रोकर चौड़ी सड़क पर जा मिलनेवाली पगडंडी पर चल पड़ी थी। जितनी अनजानी पगडंडी तब, उससे भी अनजाना अपना भविष्य था।
सिर्फ यह निश्चय कि जो कुछ भी जीवन में आएगा, उसे एकदम सहज भाव से स्वीकारती, डरानेवाले सारे संघर्षों के बीच कहीं अपनी सार्थकता की दिशा खोजती हुई तब तक जी लेगी जब तक मृत्यु स्वयं न समेट ले—और आज फिर इसी पगडंडी पर सिमट-सिमटकर चलते समय सिर्फ इतना ही निश्चय शेष है कि यदि पिताजी जीवित होंगे, स्वीकार लेंगे तो उनकी और हरचरन कका की सेवा में दिन बिता लेगी। एक क्षीण-ज्योति रेखा जो आँखों में है, इसे ईश्वर ने संभवतः इसीलिए शेष भी रख छोड़ा है कि जैसे नदी की रेखा अपने आस-पास की धरती सींचती चली जाती है, ठीक वैसे ही अपनी इस क्षण दृष्टि के दायरे में आनेवालों की सेवा मिरदुला भी करती चली जाए। न जाने किस पूर्वजन्म के किन अपराधों के दंड-स्वरूप आँखों की यह विकृति देकर, प्रायश्चित्त के लिए क्षीण-सी ज्योति दे रखी है। इससे भी दुर्भावना और कठोरता का अंधकार ही बटोरे तो बहुत संभव है, अगले जन्म में इतना भी प्रकाश जीवन में शेष न रहे।
पगडंडी पार करते-करते खेतों की सीमा तक पहुँच गई तो मिरदुला ने दूर तक देखना चाहा, मगर दृष्टि काँपकर रह गई। लगा, गाय-बछियों को जैसी स्थिति में छोड़ गई थी, ज्यों-की-त्यों हैं। जैसे तब परदेश जाती मिरदुला को देखती रही होंगी वैसे ही शायद भाग्य से भी लौटती देख रही हैं। एकटक। ऐसे ही क्षणों में तो ईश्वर के प्रति मिरदुला विरोध जताने लगती है कि ‘हे प्रभु, या तो ऐसी बावली आत्मा नहीं दी होती या इतनी कुंठित कानी आँख भी एकदम बंद कर दी होती, जिससे विस्तार को देखने की उत्कट लालसा तो प्रबल हो आती है, मगर दिखता सिर्फ उतना ही है जितना लाठी से भी टटोला जा सकता है।
पिछले दस वर्षों में कितने ही ऐसे जन्मांधों को मिरदुला ने देखा था, जो अपनी लाठी के सहारे मिरदुला से भी कहीं अधिक सुगमता से यात्रा कर लेते थे।
पानी के धारे तक पहुँच जाने के बाद मिरदुला थोड़ा पीछे की ओर लौट आई। कहीं छोटी माँज्यू पानी भरने आ रही होंगी, तो ! मगर सिर्फ इस कल्पना से धीरे के पास खिंच आई, हो सकता है, सौतेले भाई शिवचरन की बहू पानी भरने आए ! छोटी माँज्यू भी तो अब बूढ़ी हो गई होंगी। बहू पहचानेगी तो नहीं ! उससे बातें करके सबके बारे में पता चल जाएगा।
मगर कहीं पता चला कि श्याम पंडित तो....तब क्या होगा ! तब कहाँ को जाएगी मिरदुला ! पानी के इस धारे के पास सिर्फ दो ही घर पड़ते थे—एक श्याम पंडित का, दूसरा उनके चचेरे भाई का। शेष दूसरी ओर के। उनका घर वहीं पास में ही था। मिरदुला अब और भी द्विविधा में पड़ गई थी, यहाँ से घर की ओर आगे बढ़े या कहीं खेत की ओट में बैठ जाए!
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